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मरियम के साथ यात्रा [भाग - 11] अपने जीवन में प्रभु येसु का होने का आनंद


 



मरियम के साथ यात्रा  

[भाग - 11] अपने जीवन में प्रभु येसु का होने का आनंद


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इसायाह का ग्रन्थ 55:1-13

1) “तुम सब, जो प्यासे हो, पानी के पास चले आओ। यदि तुम्हारे पास रुपया नहीं हो, तो भी आओ। मुफ़्त में अन्न ख़रीद कर खाओ, दाम चुकाये बिना अंगूरी और दूध ख़रीद लो।

2) जो भोजन नहीं है, उसके लिए तुम लोग अपना रुपया क्यों ख़र्च करते हो? जो तृप्ति नहीं दे सकता है, उसके लिए परिश्रम क्यों करते हो? मेरी बात मानो। तब खाने के लिए तुम्हें अच्छी चीज़ें मिलेंगी और तुम लोग पकवान खा कर प्रसन्न रहोगे।

3) कान लगा कर सुनो और मेरे पास आओ। मेरी बात पर ध्यान दो और तुम्हारी आत्मा को जीवन प्राप्त होगा। मैंने दाऊद से दया करते रहने की प्रतिज्ञा की थी। उसके अनुसार मैं तुम लोगों के लिए, एक चिरस्थायी विधान ठहराऊँगा।

4) मैंने राष्ट्रों के साक्य देने के लिए दाऊद को चुना और उसे राष्ट्रों का पथप्रदर्शक तथा अधिपति बना दिया है।

5) “तू उन राष्ट्रों को बुलायेगी, जिन्हें तू नहीं जानती थी और जो तुझे नहीं जानते थे, वे दौड़ते हुए तेरे पास जायेंगे। यह इसलिए होगा कि प्रभु, तेरा ईश्वर, इस्राएल का परमपावन ईश्वर, तुझे महिमान्वित करेगा।

6) “जब तक प्रभु मिल सकता है, तब तक उसके पास चली जा। जब तक वह निकट है, तब तक उसकी दुहाई देती रह।

7) पापी अपना मार्ग छोड़ दे और दुष्ट अपने बुरे विचार त्याग दे। वह प्रभु के पास लौट आये और वह उस पर दया करेगा; क्योंकि हमारा ईश्वर दयासागर है।

8) प्रभु यह कहता है- तुम लोगों के विचार मेरे विचार नहीं हैं और मेरे मार्ग तुम लोगों के मार्ग नहीं हैं।

9) जिस तरह आकश पृथ्वी के ऊपर बहुत ऊँचा है, उसी तरह मेरे मार्ग तुम्हारे मार्गों से और मेरे विचार तुम्हारे विचारों से ऊँचे हैं।

10) जिस तरह पानी और बर्फ़ आकाश से उतर कर भूमि सींचे बिना, उसे उपजाऊ बनाये और हरियाली से ढके बिना वहाँ नहीं लौटते, जिससे भूमि बीज बोने वाले को बीज और खाने वाले को अनाज दे सके,

11) उसी तरह मेरी वाणी मेरे मुख से निकल कर व्यर्थ ही मेरे पास नहीं लौटती। मैं जो चाहता था, वह उसे कर देती है और मेरा उद्देश्य पूरा करने के बाद ही वह मेरे पास लौट आती है।

12) तुम उल्लास के साथ प्रस्थान करोगे और सकुशल पहुँच जाओगे। पर्वत और पहाड़ियाँ तुम्हारा जयकार करेंगी। वन के सभी वृक्ष तालियाँ बजायेंगे।

13) जहाँ ऊँटकटारे और झाड़-झँखाड़ थे, वहाँ सनोवर और मेंहदी के वृक्ष उगेंगे। यह प्रभु की महिमा का ऐसा स्मारक होगा जिसका अस्तित्व कभी नहीं मिटेगा।“


         प्रज्ञा दुःख का कारण बनता है।

 

उपदेशक ग्रन्थ 1:1-18

1) दाऊद के पुत्र, येरूसालेम के राजा उपदेशक के वचन

2) उपदेशक कहता है, "व्यर्थ ही व्यर्थ; व्यर्थ ही व्यर्थ; सब कुछ व्यर्थ है।"

3) मनुष्य को इस पृथ्वी पर के अपने सारे परिश्रम से क्या लाभ?

4) एक पीढ़ी चली जाती है, दूसरी पीढ़ी आती है और पृथ्वी सदा के लिए बनी रहती है।

5) सूर्य उगता है और सूर्य अस्त हो जाता है। वह शीघ्र ही अपने उस स्थान पर जाता है, जहाँ से वह फिर उगता है।

6) हवा दक्षिण की ओर बहती है, वह उत्तर की ओर मुड़ती है; वह घूम-घूम कर पूरा चक्कर लगाती है।

7) सब नदियाँ समुद्र में गिरती हैं; किन्तु समुद्र नहीं भरता। और नदियाँ जिधर बहती है, उधर ही बहती रहती हैं।

8) यह सब इतना नीरस है, कि कोई भी इसका पूरा-पूरा वर्णन नहीं कर पाता। आँखें देखने से कभी तृप्त नहीं होतीं और कान सुनने से कभी नहीं भरते।

9) जो हो चुका है, वह फिर होगा। जो किया जा चुका है, वह फिर किया जायेगा। पृथ्वी भर में कोई भी बात नयी नहीं होती।

10) जिसके विषय में लोग कहते हैं, "देखों, यह तो नयी बात है" वह भी हमारे समय से बहुत पहले हो चुकी है।

11) पहली पीढ़ियों के लोगों की स्मृति मिट गयी है और आने वाली पीढ़ियों की भी स्मृति परवर्ती लोगों मे नहीं बनी रहेगी।

12) मैं, उपदेशक, येरूसालेम में इस्राएल का शासक था।

13) मैंने आकाश के नीचे जो कुछ घटित होता है, उसकी छानबीन और खोज करने में अपना मन लगाया। यह एक कष्टप्रद कार्य है, जिसे प्रभु ने मनुष्यों को सौंपा है।

14) मैंने आकाश के नीचे का सारा कार्यकलाप देखा है- यह सब व्यर्थ है और हवा पकड़ने के बराबर है।

15) जो टेढ़ा है, वह सीधा नहीं किया जा सकता और जो है ही नहीं, उसकी गिनती नहीं हो सकती।

16) मैंने अपने मन में सेाचा कि अपने पहले के येरूसालेम के सब शासको से मैंने अधिक प्रज्ञा प्राप्त की है। मुझे प्रज्ञा और ज्ञान का भण्डार मिल चुका है।

17) फिर मैंने यह जानने का प्रयत्न किया कि प्रज्ञा क्या है, पागलपन और मूर्खता क्या है और मैं समझ गया कि यह भी हवा पकड़ने के बराबर है;

18) क्योंकि प्रज्ञा के बढ़ने के साथ-साथ दुःख भी बढ़ता है और जितना अधिक ज्ञान बढ़ता है, उतना अधिक कष्ट भी होता है।


जहाँ दुःख मिलता है मनुष्य वहाँ आनंद ढ़ूँढ़ता है!

प्रभु येसु का हमारे जीवन में होना ही आनंद है।

एक तरफ सारी सृष्टि और दूसरी तरफ येसु

किसको चुनेंगे?

आनंद के भेदों पर मनन करिये।

ईश्वर हमें आनंद देने के लिए बनाये।

जो ईश्वर हर दिन हम से मिलने आता उससे हमें भी हर दिन मिलना चाहिये।

मनन चिंतन के लिएः

  • मेरे जीवन की प्राथमिक्ताएँ क्या हैं? एक सूची बनाइये।
  • आपके जीवन में येसु का कौनसा स्थान है?
  • आप ज़केयुस के समान हैं क्या जो येसु को आनंदित हो कर स्वीकार किया?
  • येसु को पूर्ण रूप से अपने जीवन में आने देने में क्या-क्या बाधाएँ हैं?

इसायाह का ग्रन्थ 55:1-13

उपदेशक ग्रन्थ 1:1-18

फ़िलिप्पियों के नाम सन्त पौलुस का पत्र 4:4

संत अगस्तीन के बारे में जानिये।


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